साहित्यकार डा. पिलकेन्द्र अरोरा : ख्यात निबंधकार

भोपाल।साहित्यकार डा. पिलकेन्द्र अरोरा [उज्जैन मप्र ]चर्चित व्यंग्यकार एवं समीक्षक हैं।
‘साहित्य के प्रिंस’, ‘पाठक देवो भव’ ,
‘साहित्य के अब्दुल्ला’, ‘लिफाफे का अर्थशास्त्र’
और ‘श्री गूगलाय नमः’ ‘ चयनित व्यंग्य’ आपके
छह: प्रकाशित व्यंग्य संग्रह हैं।
आपने राष्ट्रीय शीर्षस्थ व्यंग्यकारों से सीधी बातचीत पर आधारित ‘साक्षात् व्यंग्यकार’ एवं मध्यप्रदेश के रचनाकारों पर केन्द्रित ‘व्यंग्यप्रदेश’ का कुशल संपादन किया है।
हाल ही में एक व्यंग्य ‘कराह उर्फ कर की आह’ अमरावती विश्वविद्यालय के बी.काम फायनल के हिंदी कोर्स में शामिल
टीवी चैनलों और आकाशवाणी केन्द्र से आपकी व्यंग्य वार्ताओ का प्रसारण हुआ है।
मप्र साहित्य अकादमी के शरद जोशी कृति पुरस्कार (2021 ) और मप्र लेखक संघ के प्रसिद्ध ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ सहित आपको कई सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हैं।
व्यंग्यकार होने के साथ धर्म, दर्शन और इतिहास में भी आपकी गहन अभिरूचि है। सिख इतिहास एवं साहित्य पर केन्द्रित आपकी ‘युगस्रष्टा गुरू नानक देव’, ‘युगद्रष्टा गुरू गोबिंद सिंह’ युगरक्षक गुरू तेग बहादुर ,युगग्रंथ श्री गुरू ग्रंथ साहिब : स्वरूप एवं दर्शन सहित सात पुस्तकें प्रकाशित हैं।
[आपसे इस वार्ता का उद्देश्य एक बड़े पैमाने पर आपको जानना भी है और यह भी जानना कि दूसरे आपको जिस भी रूप में जानते हैं उस समझ में यह साक्षात्कार क्या वृद्धि कर सकता हैं उसकी उपयोगिता को उसकी सार्थकता को आज के लिए नहीं बल्कि आने वाले समय के लिए भी कैसे बढ़ा सकते हैं -]कविता के निकट होता। वियोगी होगा पहला कवि की बात प्रमाणित हुई थी उस दिन जब मैंने एक चैराहे पर एक बूढ़ी भिखारिन को देखा तो ‘ वह देखो चैराहे पर चिथड़ों में लिपटी, आहो में सिमटी, गमो की गठरी बुढ़िया……… भाव फूट पड़े। तीन – चार कविताएं और लिखने के बाद जब मैंने हास्य -व्यंग्य का अ. भा. टेपा सम्मेलन देखा – सुना तो हास्य – व्यंग्य मार्ग पर चल पड़ा।
व्यंग्यत्रयी के नाम से प्रसिद्ध हैं पूर्ववर्ती व्यंग्यपुरोधा – हरिशंकर परसाई, शरद जोशी ,रवीन्द्रनाथ त्यागी । ये व्यंग्य ट्रेंड सेटर हैं और सेंटर भी । इनके प्रभाव से कोई नहीं बच सका है। टेपा सम्मेलन के संस्थापक अध्यक्ष डा. शिव शर्मा मेरे टेपागुरू रहे। उनके निर्देशन में मेरी विधिवत व्यंग्य यात्रा प्रारंभ हुई। यात्रा में शरद जोशी और रवीन्द्रनाथ त्यागी की रचनाएं सदा मेरा मार्गदर्शन करती रही हैं।
व्यंग्य समाज -व्यवस्था की विसंगतियों को देख उपजा एक सात्विक आक्रोश है, एक रचनात्मक विद्रोह है। अपने विद्रूप समय से असहमति और असहिष्णुता तीक्ष्ण स्वर है। विकृतियों से आहत -संत्रस्त रचनाकार की पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति है। पीर के विराट हिमालय से गंगा निकालने का एक सार्थक प्रयास है। आसमां में सुराख करने की एक कोशिश है।
एक बैठक, एक प्रवाह में रचना पूर्ण हो जाए श्रेष्ठ बन जाती है। वाकई ब्रेक विचार शंृखला टूट जाती है। पर चूंकि मेरे अधिकांश व्यंग्य कालम साइज के हैं ,शेष भाग के मुख्य बिंदु नोट करने से अधूरा उसी तरह पार लग जाता है। वैसे रचनाओं की यह सीमा मेरे लेखन की सीमा भी है।वरिष्ठ इन रचनाओं को व्यंग्य नहीं, व्यंग्य टिप्पणी कहते हैं।
यह मेरी सीमा भी है और एक आदत भी कि जब तक संतोष नहीं होता , लगातार राइट -रिराइट, आजकल टाइप -रिटाइप करता रहता हूं ।तीन चार ड्राफ्ट के बाद ही अंतिम रूप दे पाता हूं। कोशिश रहती है कि यथासंभव हर दो -तीन पंक्ति में व्यंग्य का पंच प्रहार हो और हास्य का माधुर्य भी।
व्यंग्य को सामाजिक नियत्रंण का उपकरण कहा गया है। व्यंग्य का आधार ही समस्या है जिससे रचनाकार उद्वेलित -पीड़ित होकर लिखता है। कविता हो या व्यंग्य विमर्श! रचना का कोई न कोई सामाजिक उद्देश्य होना ही चाहिए, तभी लिखा हुआ सार्थक है वरना मनोरंजन के लिए लिखना तो समय, शक्ति और ऊर्जा की बर्बादी है।
जटिल, क्लिष्ट भाषा और दुरूह शब्दों -मुहावरों का प्रयोग कर न तो पांडित्य का प्रदर्शन करना चाहिए और न पाठकों की परीक्षा लेना चाहिए। व्यंग्यत्रयी में सबसे सरल बातचीत की भाषा का प्रयोग रवीन्द्रनाथ त्यागी ने किया है। शरदजी का भाषा अपेक्षाकृत कठिन है।
सामयिक बनाम शाश्वत चर्चा पुरानी है।दैनिक अखबारों के कालम में तत्काल छपने के मोह में कई व्यंग्य सम -सामयिक विषयों पर लिखें हैं उनका अब कोई महत्व नहीं है। अधिकतर राजनीतिक या तात्कालिक घटना पर प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गए सभी व्यंग्य डस्टबिन अब रिसाइकल बिन के लायक हैं।
वस्तुतः व्यंग्यत्रयी और उनके बाद के वरिष्ठ व्यंग्यकारों ने इतने विषयों पर व्यंग्य रचनाएं लिखी हैं कि अब सब पिष्टपेषण ही लगता है। व्यंग्य लेखन पर पत्र -पत्रिका की नीति का प्रभाव पड़ता है।हालांकि व्यंग्य की भूमिका सदा विपक्ष की रहती है पर पत्र -पत्रिकाओं की विचारधारा अवरोध सिद्ध होती है। सामाजिक और साहित्यिक व्यंग्य में सुविधा व स्वतंत्रता रहती है।
अनुभूति जन्य रचना ही श्रेष्ठ बन पाती है। अधिकतर व्यंग्य रचनाएं भोगा हुआ यथार्थ तो नहीं, हां अनुभव किया हुआ है और व्यक्ति -समाज के पसरी हुई विडम्बनाओं के प्रति एक रचनात्मक प्रतिक्रिया। अध्ययन या अनुभव को रचना में रूपातंरित करने के लिए कल्पना का उपयोग तो करना पड़ता है वरना वह डायरी मात्र की विषयवस्तु बन जाए।
अधिकतर व्यंग्य साहित्यिक विषयों पर केन्द्रित हैं। यह मेरी सीमा भी है और विशेषता भी। मुझे रचनाकारों का अहम ,उनकी आत्ममुग्धता, आपसी स्पर्घा, ईष्र्या मतभेद, मनभेद बहुत आहत करते हैं। मुझ पर अपनी ही बिरादरी के विरूद्ध लेखन का आरोप भी है। मेरा जवाब है कि मैं उस दर्पण की साफ -सफाई करने के लिए चिंतित रहता हूं जिसमें अंततः समाज – व्यवस्था को अपना स्पष्ट प्रतिबिम्ब देखना है।
रचनाकार को किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति नहीं वरन अपने समय, समाज और सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध रहना चाहिए। उन पाठकों के प्रति ईमानदार रहना चाहिए अंततः जिनके लिए वह सृजनशील है। किसी विचारधारा विशेष से बंधा हुआ लेखन सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय भला कैसे हो सकता है?
अज्ञेय जी का कथन भी अपनी जगह सत्य है कि सृजन की प्रेरणा किसी पीड़ा या संत्रास से ही मिलती है, भोगे हुए यथार्थ को व्यक्त करना भी एक यंत्रणा जैसा है। पर एक और पक्ष है कि सृजन द्वारा तो व्यक्ति अपनी यंत्रणाओं से मुक्त होता है। सृजन आत्मिक सुख और आनंद प्रदान करता है। रचना का सुख मां द्वारा संतान को जन्म देने जैसा सुख है। गर्भधारण यंत्रणा नहीं, एक संस्कार है।
व्यंग्य विधा का विद्यार्थी होने के नाते इस प्रश्न के उत्तर में साक्षात् व्यंग्यकारों को ही नमन करना चाहंूगा। व्यंग्यत्रयी के बाद डा. सूर्यबाला , डा. हरीश नवल, डा प्रेम जनमेजय,डा. ज्ञान चतुर्वेदी, श्री सुभाषचंदर, डा. आलोक पुराणिक को मैं साक्षात् व्यंग्यकार मानता हूं। इन दिनों श्री अरविंद त्रिवेदी के व्यंग्य निरंतर सशक्त और मारक प्रकाशित हो रहे हैं।
परसाई जी ने कहा था व्यंग्य समाज की आलोचना है। वाकई व्यंग्य का उसका अंतिम उद्देश्य एक संुदर, स्वस्थ और सशक्त समाज की रचना करना है। इसके लिए नैतिक मूल्यों की स्थापना आवश्यक है। व्यंग्य सामाजिक नियंत्रण द्वारा समाज में सिद्धांत, आदर्श और नीति की चर्चा करता है।श्रेष्ठ मनुष्य ही श्रेष्ठ समाज और श्रेष्ठ राष्ट्र के निर्माण का आधार सिद्ध हो सकता है।
वास्तव में व्यंग्य एक शैली है ,विधा नहीं। वह कविता, कहानी, उपन्यास , नाटक आदि विधाओं में भी घ्वनित होता है।पर इन दिनों व्यंग्य की बढ़ती लोकप्रियता और प्रतिष्ठा के कारण व्यंग्य को स्वतंत्र विधा का दर्जा स्वतः प्राप्त है। कहा जाता है साहित्य का निकष यदि गद्य है तो व्यंग्य ,गद्य का निकष है।
पुरस्कार और सम्मान की गरिमा संस्थाओं ने स्वयं गिराई है। अपात्रों को पुरस्कृत और सुपात्रों को तिरस्कृत करने का ऐसा खुला खेल डंके की चोट पर खेला जा रहा है। शर्म संस्थाओं को ही नहीं अपात्रों को भी आनी चाहिए जो साम -दाम -दंड -भेद द्वारा पुरस्कार कबाड़ कर आत्मप्रवंचना में रत हैं। रचनाकार का वास्तविक सम्मान पाठक हैं। लेखकों को भी सम्मान की मोह -माया से निर्लिप्त रहना चाहिए।
अभिनंदनीय है उपस्थिति। डा. सूर्यबाला और अलका पाठक ने व्यंग्य की जो विशाल मशाल प्रज्वलित की है, कई महिला व्यंग्यकार उसे पूरी शक्ति और सामथ्र्य से थामे हुए हैं और निरंतर श्रेष्ठ लेखन में रत हैं। नाम लेना समीचीन न होगा, लम्बी सूची है। व्यंग्य- यात्रा का एक पूरा अंक महिला विशेषांक रहा है। पर मेरी विनम्र राय में लेखन, लेखन होता है उसका पुरूष -महिला आधार पर विभाजन नहीं किया जाना चाहिए।
वाकई साहित्य का स्वर्णयुग अब कभी नहीं आ सकता। महान और कालजयी लेखन अब अतीत की बाते हैं। अतीत प्रायः स्वर्णिम होता ही है। इधर इलेक्ट्रानिक और डिजिटल युग और बाजारवाद ने साहित्य – कला संस्कृति को बहुत पीछे छोड़ दिया है। कोर्स- कैरियर के बोझ में दब रही नई पीढ़ी की साहित्य के प्रति अभिरूचि नहीं है।
भारत विविधता का देश है। हिंदी सभी 140 करोड़ की मातृभाषा नहीं है। पर आजादी के 75 वर्ष बाद भी एक राष्ट्रभाषा का न होना हमारी घोर असफलता है जो आहत करती है। वर्ष के एक दिन 14 सितंबर के हिंदी दिवस को व्यंग्य में सितंबर का आडम्बर कहा जाता है। अंग्रेजी बाजारवाद के युग में बाजार की भाषा है। हिंदी अब केवल विमर्श की भाषा है।
वाकई लेखकों को स्वाभिमान आत्म -सम्मान और आत्म -गौरव का जीवन जीना चाहिए। ढोंग ,पाखंड और आडम्बर का दोहरा जीवन नहीं जीना चाहिए।पद ,प्रकाशन ,पुरस्कार के लिए संपादकों, प्रकाशकों और नेताओं की तलवों का अभिषेक करना बंद करना चाहिए।
शत -प्रतिशत आत्मकेन्द्रित। किसी के पास किसी के लिए न चिंता है न समय और न संवदेना । निहित स्वार्थ और निजी -हित का बोलबाला है। एक मुद्रा राक्षस के सामने सारे सामूहिक लक्ष्य बौने हो गए हैं। एकमात्र लक्ष्य है- अधिकतम निजी हितों और लाभों की पूर्ति।
साहित्यकार की काव्य प्रतिभा मात्र कवि गोष्ठियों तथा सम्मेलनों तक सीमित रह गई है। बहुत ही जल्दी व्यक्ति अपने को युगद्रष्टा कवि तथा लेखक घोषित कर देता है ।इतनी जल्दबाजी क्यों ?
यह आत्मप्रचार और आत्मविज्ञापन का युग है। नेता -अभिनेताओं की तरह लोग रातांे -रात स्टार बनना चाहते है जबकि लेखन में यह प्रपंच संभव नहीं! दुर्भाग्य से अब सोशल मीडिया इतना प्रभावी है कि वहां आप जैसा चाहें वैसा खुद को प्रजेंट कर सकते हैं। सोशल मीडिया, सौ छल मीडिया और फेसबुक फेकबुक बन गई है।
व्यंग्य को सुपाच्य -सुग्राह और स्वादु बनाने के लिए हास्य का उपयोग किया जाना आवश्यक है। व्यंग्य कड़वी दवा है तो हास्य शहद के समान है ,पर शहद सीमित मात्रा में होना चाहिए। साथ ही हास्य शिष्ट और शालीन होना चाहिए हास्यास्पद नहीं, वरना वह व्यंग्य को प्रभावहीन कर सकता है।
व्यंग्य एक सुशिक्षित मस्तिष्क की विधा है। बाल साहित्य में हास्य का प्रयोग हो सकता है,व्यंग्य का नहीं!
अ.भा. टेपा सम्मेलन और अ.भा. सदभावना व्याख्यानमाला के संयोजक -सूत्रधार के रूप में कई महत्वपूर्ण साहित्यकारों और विचारकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं से मुलाकातें हुईं जिनसे मैं समृद्ध होने का प्रयास करता रहा। वे उल्लेखनीय हैं, पर सीमित स्पेस में उनका उल्लेख संभव नहीं है।
मैं तो मोक्ष प्राप्ति का इच्छुक हूं और आपका प्रश्न पुर्नजन्म का है। वास्तविक घर यह संसार नहीं है, वह लोक है। वास्तविक माता -पिता वह परमात्मा है। जन्म लेकर मनुष्य पुनः माया -मोह के आकर्षण में उलझ जाता है। फिर भी यदि जन्म मिला तो कवि बनना चाहूंगा,व्यंग्यकार नहीं! बहुत त्याग करना होता है विसंगतियों में रहकर विसंगतियों को उजागर करने में जोखिम होती है।
अब समीक्षा और आलोचना संबंध और अनुबंध पर आधारित हैं। समीक्षा रचनाकार के परिचय व चर्चा तक सीमित हो गई है। कुछ आलोचक, आलोचना को स्वतंत्र रचना बना कर प्रस्तुत करते है , अलंकारिक पांडित्यपूर्ण ताकि लोग आलोच्य कृति से अधिक उनकी आलोचना से आकर्षित हो जाएं। परसाई जी ने कहा था कि व्यंग्य स्वयं समाज की आलोचना है उसे आलोचना की जरूरत ही नहीं!
‘ये रचना अगर छप भी जाए तो क्या है’ रचना मुझे प्रिय है। वर्षों से व्यंग्य लेखन चल रहा हैं विसंगतियां – विषमताएं – विडम्बनाएं बढ़ती जा रही है! क्या प्रभाव हुआ सामाजिक नियंत्रण के इस उपकरण का समाज पर ।हास्यास्पद लगता है यह कहना कि भक्त कबीर ,परसाई और शरद जोशी आज भी प्रासंगिक हैं अर्थात् जो विसंगतियां उस दौर में थी, आज भी हैं। प्रश्न यह कि व्यंग्य का क्या प्रभाव पड़ा?
वाकई व्यंग्य दुधारी तलवार है या बिना मूठ का चाकू है।ईश्वर की कृपा से टेपा सम्मेलन में बड़े- बडे नेताओं -मंत्रियों अधिकारियों पर व्यंग्य प्रशस्तियों का वाचन किया पर सौभाग्य से कोई नाराज नहीं हुआ। लेखन प्रवृतियों पर किया, व्यक्ति पर नहीं जिससे कि उसके मान -सम्मान को ठेस पहंुचे और संघर्ष की स्थिति आए।पर संघर्ष जैसी स्थिति नहीं आई।
अति सुंदर प्रश्न। बचपन के उन सभी क्षणों को दुबारा अनुभव करना चाहूंगा जब सिर पर पूज्य पिता का छत्र और पूज्य माता की छाया थी ! उनकी महायात्रा के दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण अनुभव जीवन से घटाना चाहंूगा!
स्थापित व्यंग्यंकारों से तो प्रार्थना ही कर सकता हूं कि नए व्यंग्यकारों को मार्गदर्शन देकर प्रेरित और प्रोत्साहित करे। उन्हें पठ्ठे पालें नहीं, शिष्य बनाएं। गुट नहीं, ग्रुप बनाएं । नए व्यंग्यकारों से निवेदन कि क्वालिटी पर घ्यान दें, क्वांटिटी पर नहीं! आए दिन बार -बार प्रकाशित होकर यह प्रमाणित करने की जरूरत नहीं कि हम व्यंग्यकार हैं और जीवित हैं!
महिलाएं पारिवारिक जीवन में व्यस्त होकर भी रचनाकर्म में लगीं हैं। उनका शत् शत् अभिंनदन। उनका त्याग अधिक महत्वपूर्ण है। पर उनकी प्राथमिकता परिवार होना चाहिए, व्यंग्य नहीं! समय निकाल कर हर संभव हो तो वर्ष में एक बार रिफ्रेशर कोर्स करें -परसाईजी, शरदजी और डा. सूर्यबाला जी के व्यंग्य -संग्रहों का पारायण करें।