October 4, 2024

ब्रह्म के स्वरुप का बोध ही मोक्ष है : स्वामी हरिबह्मेद्रनन्द तीर्थ


Bhopal: आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास, संस्कृति विभाग द्वारा अद्वैत वेदांत की शास्त्र परंपरा विषय पर आयोजित प्रेरणा संवाद में मुख्य वक्ता आदि शंकर ब्रह्म विद्यापीठ उत्तरकाशी के आचार्य एवं न्यासी आचार्य शंकर न्यास स्वामी हरिबह्मेद्रनन्द तीर्थ ने सम्बोधित किया।

वेद का तात्पर्य जानने से ही वेदांत को जान पाएंगे

आचार्य शंकर न्यास द्वारा जनजातीय संग्रहालय में ‘प्रेरणा संवाद’ का आयोजन



उन्होंने कहा कि हमारी परंपरा आर्ष-परंपरा है, ऋषियों ने इसका अनुभव एवं चिंतन कर प्रमाणित किया। इसलिए इसे सनातन भी कहते हैं। वेदांत, वेद का ही सार है, यह हमें रहस्य समझाता है, वेदांत का ज्ञान अत्यंत सूक्ष्म एवं अनुभवजन्य है। हमारे मनीषियों ने इसका आचरण किया था, जिसमें कुछ भी कल्पना नहीं है। बल्कि यह तो स्वानुभूत विषय है, स्व-आनंद का विषय है। यह यथार्थ दर्शन है। हर एक बात को समझने की एक प्रक्रिया होती है। प्रक्रिया के द्वारा कुछ समझा जाए तभी वह वैज्ञानिक कहलाता है। आचार्य शंकर ने भी कई जगहों पर विषय को समझाने के लिए अनेक वृतांत दिए।

ज्ञान तत्व को समझने के लिए वेदांत अनिवार्य है

उन्होंने कहा कि वेद की 1180 शाखाएँ मिलती हैं। ये उपनिषदों की शाखाएँ वेदों के अंतिम भाग में मिलती हैं। यही वेदान्त का भाग है और यही वेदों का सार भी है। ज्ञान तत्व को जानने के लिए वेदान्त की अनिवार्यता है क्योंकि यह ज्ञान सूक्ष्म होता है। यह ज्ञान अनुभव से पूर्ण है, इसमें कल्पना का कोई स्थान नहीं। इसीलिए वेद और वेदांत यथार्थ हैं।  वेद का अध्ययन ब्रह्मचर्य काल में ही होता है। चूँकि ब्रह्मचर्य की आयु बहुत छोटी होती है इसीलिए ऋषियों ने वेदांत को समझाने हेतु अनेक कथानक जोड़े ताकि उसे समझने में आमजन की रुचि बनी रहे।


कल्पना तब तक है, जब तक अज्ञान है।

स्वामी हरिबह्मेद्रनन्द तीर्थ ने अपने उद्बोधन में वेदांत के मर्म को समझाते हुए कहा कि अपने अस्तित्व को जाने बिना आपका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है। कल्पना तब तक है, जब तक अज्ञान है। वेदांत भी इसी बात को दोहराता है। वेदांत में मोक्ष का दिग्दर्शन कराया है। सोते समय हम आनंद की अवस्था में होते हैं क्योंकि उस समय हम एक हो जाते हैं, वहाँ हम स्त्री, पुरुष, जानवर, पशु, पक्षी नहीं रहते। सोते समय हमारा कोई दोष शेष नहीं बचता, सोये हुए व्यक्ति की वृत्ति छूट जाती है। इसी समय हम परम आनंद की अवस्था में होते हैं। यही सत्-चित्-आनंद की अवस्था है।

आचार्य शंकर के पूर्ववर्ती आचार्यों ने भी सिद्धांत रूप में अद्वैत भाव को ही व्यक्त किया। भगवान नारायण से लेकर गुरु परंपरा के रूप आचार्य शंकर एवं उनके बाद के आचार्यों ने भी अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया। जनजातीय संग्रहालय में आयोजित ‘प्रेरणा संवाद’ में शहर के प्रबुद्धजन और सहृदय श्रोताओं ने सहभागिता की और जीवन में वेद, वेदांत तथा अद्वैत की महत्त्वता को जाना।

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