Friendship day : एक जगह कहीं मैंने पढ़ा था कि समझदार मन ही मित्रता कर सकता है। आम तौर पर इसे इस तरह समझा जाता है कि जब हमारा कोई साथ दे तो उसे हम मित्र मान लेते हैं और जब कोई हमारा साथ नहीं देता तो उसे मित्र नहीं कहना चाहते। श्रोताओ ‘मित्रता’ शब्द इतना व्यापक है, इतना विस्तृत है कि इसको पूरी तरह समझने में कभी-कभी पूरी ज़िन्दगी लग जाती है। आइए आज एक अलग तरह से, एक अलग दृष्टिकोण से इस शब्द के बारे में सोचने का प्रयास करें।
बचपन में जब हर चीज़ को बच्चा विस्मय से देखता है और उसके बारे में जानने का प्रयास करता है तब हमारे माता-पिता ये बताते हैं कि कौन सी चीज अच्छी है या कौन सी बुरी। कहा जाए तो वही हमारे प्राथमिक मित्र होते हैं क्योंकि मित्र उसी को कहा जाता है जो सही राह पर चलना सिखाए या थोड़ी दूर ही सही, साथ चले। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं जानने की इच्छा बढ़ती चली जाती है तब स्कूल के अध्यापक और समाज के अनुभवी लोग इस काम में हमारी मदद करते हैं। कहने का आशय ये है कि मित्र कोई भी हो सकता है, किसी भी वर्ग से हो सकता है या यूं कहें कि जो भी हमें थोड़ा सा भी ज्ञान दे दे, वही मित्र है।
इस बारे में थोड़ी सी जानकारी और हमारी स्वयं की जागरूकता भी काम आती है। अगर अपात्र लोगों से या अपरिपक्व लोगों से हम कुछ जानने का प्रयास करेंगे तो संभव है कि सही जानकारी प्राप्त न हो, या जो उनका दृष्टिकोण हो और जिसे वो अपनी नज़र में सही समझते हों, वही हमें सिखा दें और हम उसे ही सही मान लें। ऐसे तथाकथित वे लोग भी हो सकते हैं, जिन्हें हम मात्र हमारे पक्ष में बोलने के कारण मित्र मान बैठते हैं। यानी कौन हमारा मित्र है और कौन हमारा मित्र नहीं है, इसका निर्णय सबसे पहले हमें खुद करना सीखना होगा।
आज से पांच साल पहले हम क्या थे और आज हम किस स्थिति में अपने आप को पाते हैं? निश्चित रूप से पिछले पांच साल में हमने कुछ सीखा होगा, कुछ पाया होगा, कुछ खोया होगा। अगर कुछ अन्तर हममें आया है या जरा सी भी परिपक्वता बढी है तो इसके कौन से कारण थे, परिस्थितियां, हमारी मेहनत या वे लोग जो हमारे आस-पास रहे? अगर इस बारे में हम थोड़ा सा सोचें तो तरवीर अपने-आप साफ हो जाएगी कि परिस्थितियां हमारी मित्र रहीं, हमारी मेहनत से हमारी दोस्ती हुई या हमारे आसपास के लोग, जिनसे हमने सीखा वे हमारे मित्र थे।
जो परिपक्व होने के लिए तैयार रहें, सीखने के लिए तैयार रहें, परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार रहें, वे ही मित्रता के मायने समझ सकते हैं क्योंकि तरह-तरह के अनुभवों से गुज़रने के बाद भी ये तय कर पाना कठिन होता है कि मित्रता क्या है। जैसा कि मैंने शुरू में कहा- जब कोई हमारा साथ देता है तो उसे हम मित्र मान बैठते हैं और जब कोई साथ नहीं देता तो उसे मित्र नहीं मानते। जबकि इससे महत्वपूर्ण बात ये है कि जिसके लिए हमने साथ चाहा क्या वो राह सही थी और अगर गलत राह पर चलने के लिए किसी ने हमारे साथ आने से इन्कार कर दिया या हमें रोक दिया तो कौन व्यक्ति हमारा मित्र था साथ चलने वाला या रोकने वाला?
एक मित्र तलाशने में कभी कभी बहुत लम्बा समय लग जाता है क्योंकि जिनसे हमारी पहचान होती है या जो हमारे मिलने वाले होते हैं, उन सभी को मित्र नहीं कहा जा सकता। इनमें से अगर एक भी मित्र मिल जाए, तो सौभाग्य की बात होती है लेकिन कुछ ऐसे मित्र भी हो सकते हैं जो जीवन भर हमारे साथ रह सकते हैं। आरोग्य से दोस्ती कीजिए, मेहनत को अपना साथी बनाइये, अच्छे विचारों को अपना मित्र बनाइये। ये सभी ऐसे मित्र हैं, जिन्हें हर कोई प्राप्त कर सकता है और जिसने एक बार भी इन्हें अपना दोस्त बना लिया तो फिर इनका साथ कभी नहीं छूटता।
आज जब हर कोई एक-दूसरे से आगे निकलना चाहता है, वहां मित्रता को भी अलग मायनों में परिभाषित किया जाता है और उसका परिणाम ये होता है कि लोग मानवीय गुणों को भूलकर एक-दूसरे से ईर्ष्या करने लग जाते हैं और हास्यापद तो ये है कि जिससे ईर्ष्या करते हैं, उसी के बारे में लोगों से कहते फिरते हैं कि ये मेरा मित्र है। मित्रता के लिए तो केवल उदारता ही एकमात्र पहलू हैं जो उसे जीवित रख सकता है। कृष्ण और सुदामा की मित्रता ये बताती है कि दोस्ती का आधार केवल समझदार मन ही होता है और उसमें कभी भी छोटे-बड़े का अन्तर नहीं होता।
फूल जैसे-जैसे खिलता जाता है सारी दुनियां को उसका पता चल जाता है। फूल खिलेगा तो सुन्दरता बढ़ेगी, उसकी सुगन्ध फैलेगी। किसी की नाक बन्द हो तो वह आंखों से देख लेगा, किसी की आंख बन्द हो तो वह छूकर पता लगा लेगा। मित्रता भी एक फूल की तरह है जिसमें सुगन्ध भी है, सुन्दरता भी है और कोमलता भी है। मित्रता और प्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जैसे-जैसे मित्रता बढ़ती जाएगी, प्रेम भी उसी अनुपात में बढ़ता जाएगा। मित्रता किससे करनी है और किससे नहीं करनी है इसका चुनाव हमें खुद करना पड़ेगा।
Happy Friendship day