निर्जला एकादशी : तप, आस्था और मोक्ष का महापर्व

भोपाल।निर्जला एकादशी हिन्दू सनातन परंपरा का एक अत्यंत पवित्र व्रत है, जो ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को आता है। इस एकादशी की विशेषता यह है कि इसमें उपवास के साथ-साथ जल का भी पूर्णतः त्याग किया जाता है, जिससे इसका नाम पड़ा — “निर्जला”, अर्थात “बिना जल के”। इस साल निर्जला एकादशी का व्रत 6 जून 2025 को रखा जाएगा।
धार्मिक महत्व और आध्यात्मिक दृष्टि
समस्त एकादशियों के पुण्य का समागम: शास्त्रों के अनुसार, जो व्यक्ति वर्षभर की सभी एकादशियों का व्रत नहीं कर पाता, उसके लिए निर्जला एकादशी का एक व्रत ही सभी एकादशियों के व्रतों के समान फल प्रदान करता है।
भीमसेन की कथा और व्यास उपदेश: पौराणिक कथा के अनुसार, महाभारत के भीमसेन भोजन के प्रति विशेष अनुरक्त थे। व्रत का कठोर पालन उनके लिए कठिन था। तब महर्षि व्यास ने उन्हें इस एक ही दिन बिना जल के उपवास करने का परामर्श दिया। भीमसेन ने इस व्रत का पालन किया और तभी से इसे भीम एकादशी भी कहा जाता है।
पापों का क्षय और विष्णुलोक की प्राप्ति: इस व्रत के प्रभाव से साधक के समस्त पाप नष्ट होते हैं और वह भगवान विष्णु के परमधाम को प्राप्त करता है।
भगवान श्रीहरि की विशेष आराधना: भक्त इस दिन विष्णु जी की पूजा तुलसी पत्र, पीले पुष्प, धूप-दीप और पंचामृत स्नान द्वारा करते हैं। “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का जाप विशेष फलदायक माना गया है।
व्रत विधि एवं पारंपरिक अनुष्ठान
दशमी को तैयारी: व्रती एक दिन पूर्व सात्विक भोजन करता है और रात्रि में व्रत का संकल्प लेता है।
एकादशी को व्रत: सूर्योदय से द्वादशी तक निर्जल रहकर भगवान विष्णु का ध्यान, व्रतकथा श्रवण, भजन-कीर्तन किया जाता है।
द्वादशी को पारण: अगले दिन ब्राह्मणों को भोजन और दान देकर व्रत का पारण होता है।
सामाजिक और स्वास्थ्यपरक दृष्टि
यह व्रत आत्मनियंत्रण और संयम की चरम परीक्षा है।
शरीर के आंतरिक शुद्धिकरण (डिटॉक्स) में सहायक होता है।
मानसिक रूप से यह संतुलन, सरलता और आत्म-चिंतन को प्रेरित करता है।
निर्जला एकादशी केवल धार्मिक अनुशासन नहीं, बल्कि यह एक आध्यात्मिक साधना है, जो तन, मन और आत्मा की शुद्धि का अद्भुत मार्ग है। यह पर्व जीवन में तप, श्रद्धा और आस्था का अनूठा संगम प्रस्तुत करता है।